सिख मुस्लिम और दलितों के खिलाफ तीन हिंसा में समानता -चश्मदीद, प्रशांत टंडन

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नफरत का कॉमन कॉज़: ये तीन कहानिया तीन अलग अलग समाज की है. लेकिन एक किरदार है जो तीनो में मौजूद है. उसे पहचानिये.




मैं 84 की सिख विरोधी हिंसा का चश्मदीद हूँ. सिखो की दूकानो को पुलिस और प्रशासन की निगरानी में लुटते देखा है. मैं सिख नही था तो दूसरी तरफ से इसे देखना आसान था. ये हिंदू समाज के एक तबके की प्रतिक्रिया थी. उस हिंसा और लूट के पीछे मूल भवना न राष्ट्रवाद थी और न ही इंदिरा गांधी के प्रति सम्मान. इसमे इंदिरा गांधी के विरोधी भी शामिल थे. वो भी जो इमरजेंसी में अंडरग्राउंड थे.

मूल भावना थी सिखो के प्रति ईर्ष्या. उनका बढ़ता कारोबार चुभ रहा था. सिख दूकानदारो के मकान अच्छे हो गये थे. उनकी दूकाने पहले से बड़ी हो गई थी. कुछ व्यापार खासकर मोटर स्पेयर पार्ट्स और रेडिमेड कपड़ो में तो लगभग पूरी पकड़ थी. मेरे एक पड़ोसी एक दूकान से अच्छा खासा माल लूट कर लाये थे. वो जिस दूकान का था वो दिन भर वहीं बैठते थे, उसी की चाय पीते थे, उधार भी लेते थे. ऐसे बहुत से थे.

लूट का माल कुछ दिन में चुक गया और सिख दूकानदार फिर खड़े हो गये. अभी भी व्यापार में वैसा की कब्ज़ा है उनका. जिन्होने सिखो को सबक सिखाने के लूटा था उन्हे भी देखता हू. वो भी वहीं हैं जहॉ थे. वैसे ही मकान, कोई छोटी मोटी नौकरी या दूकान. अगली पीढ़ी भी कुछ खास नही कर पाई. शुरुआती गुंडागर्दी के बाद नाली-गिट्टी-खड़िंजे के ठेकेदार ही बन पाये.


अस्सी के दशक के बिलकुल शुरुआती दौर की बात है. तब राम मंदिर का मुद्दा पैदा भी नही हुआ था. लेकिन विश्व हिंदू परिषद था. उसकी एक बैठक घर के पास हो रही थी. जो बाते हो रही थी उसे सुना. बैठक “पेट्रो डालर” पर केंद्रित थी. खाड़ी के देशो से मुसलमान के पास पैसा आ रहा था उसके खिलाफ आंदोलन चलाने की बात हो रही थी.

सत्तर के दशक में बड़ी संख्या में मुसलमान खाड़ी के देशो में काम धंधे के लिये गये. एक गया तो उसने अपने परिवार या जानने वालो में चार को और बुलाया. ये आमतौर पर छोटे काम धंधे वाले लोग थे. जब लौटते थे तो अपने साथ बड़े बड़े टेप रिकार्डर और इलेट्रानिक्स का दूसरा सामान लाते थे. कपड़े सूती की जगह सिंथेटिक हो गये थे इनके. शाम को तैयार होकर, सेंट लगा कर शहर में घूमते थे. विदेशो के किस्से उनसे सुनने पर लगता था कि किसी परी लोक को देख कर आये थे. एक दोस्त था महफूज़. अंडे की दूकान थी उसकी. उसके भाई भी वहॉ नौकरी करने गये थे. बड़ा टेप रिकार्डर वही देखा था पहली बार.

कई साल बाद विश्व हिंदू परिषद के उस “पेट्रो डालर” के खिलाफ अभियान और खाड़ी से लौटे मुसलमान के बड़े टेप रिकार्डर का रिश्ता समझ में आया. हॉ राम जन्म भूमि और बाबरी मस्जिद का आंदोलन शुरु होते ही ये समझ में आ गया था कि इसकी मूल वज़ह बाबर नही महफूज़ के भाई का टेप रिकार्डर है. 



कुछ महीने पहले मेट्रो स्टेशन से घर आरहा था. रिक्शे पर था. रास्ते में रिक्शेवाले से बात होने लगी. बिहार के छपरा का था. मैंने पूछा किसे वोट दिया था चुनाव में. बिना किसी हिचक के उसने जवाब दिया “लालू जी” को. मैंने पूछा क्यों – उनकी सरकार में कोई विकास नही हुआ, घोटाले का आरोप भी लगता है – जेल भी काट आये. उसका जवाब था कि आप शहर में रहने वाले कभी नही समझ पायेंगे कि लालू जी ने क्या दिया है हमको.आगे उसने बताया कि पहले अगर गांव में हम साइकिल पर जा रहे हों और सामने से कोई “बड़ा आदमी” आ जाये तो हम साइकिल से उतरते थे, उसके पैर छूते थे और फिर साइकिल पर चढ़ते थे. लालू जी के आने बाद अब हम किसी के पैर नही छूते है – हाथ मिलाते हैं. 
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ये तीन कहानिया तीन अलग अलग समाज की है. लेकिन एक किरदार है जो तीनो में मौजूद है. उसे पहचानिये.
(प्रशांत टंडन इनकी फेसबुक वाल से साभार)



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