अब खाना मिले या ना मिले रोज़ा तो रखना ही है- सुखी रोटी से करतें हैं इफ्तार

CITY TIMES
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चुड़ियाला/मीरापुर : उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर ज़िला में मीरापुर से खतौली मार्ग पर एक गांव है चुड़ियाला. यहां गांव में प्रवेश से पहले 21 ‘बेघर’ परिवार प्लास्टिक के छत के नीचे रहते हैं. ये सभी मुस्लिम हैं और मेहनत मज़दूरी करके घर चलाते हैं. सड़क के ठीक किनारे क़ब्रिस्तान है. तेज़ हवा चलने से इनकी झोपड़ियां अक्सर उड़ जाती हैं. तिनका-तिनका संवार कर फिर छत बनाई जाती है, जिसमें फिर से तूफ़ान न आने की दुआ की शिद्दत होती है.
रमज़ान के पाक इस महीने में इनका दर्द आप तक पहुंचाने TwoCircles.net की टीम ने इस इलाक़े का दौरा किया. कुल 21 परिवार का एक मुखिया हैं —मो. इस्लाम. उम्र 55 साल है और उन लोगों का इलाज ये करते हैं, जिन्हें किसी सांप या कुत्ते ने काट लिया हो. इन 21 परिवारों में ज्यादातर महिलाएं और बच्चे हैं. सिर्फ़ 15 लोग ही कमाने वाले हैं. यह सभी मजदूरी करते है. यहां 25 बच्चे हैं, मगर स्कूल एक भी नहीं जाता. कुछ बच्चे कभी-कभी मदरसे चले जाते हैं.
रमज़ान में इफ़्तार के वक़्त किसी के चूल्हे में ताकाताकी तकलीफ़ तो देती है, मगर थोड़ा सा नमक ज़्यादा होने पर कोरमा छोड़ देने वाले लोगों को यह बताना ज़रूरी है कि हम खुद इन 21 परिवारों के चूल्हों पर गए, लेकिन सिर्फ़ एक पर सब्ज़ी बन रही थी. आधे से ज्यादा के चूल्हे ठंडे थे और आधे में सिर्फ़ रोटी थी.




65 की खुर्शीदा बता रही हैं, ‘बच्चों को सुखी रोटी खाने की आदत है.’ उनकी यह बात इसलिए भी सच थी क्योंकि सामने ही उनका 8 साल का एक लड़का जुनैद एक चारपाई के किनारे बैठकर रोटी का टुकड़ा चबा रहा था. उसका एक दूसरा भाई रिहान चारपाई के दूसरे किनारे पर रो रहा था, ताकि उसकी मां उसे दूध पिला दे.
रुबीना घर से बाहर चारपाई पर क़ुरान पढ़ रही है. मेरा दिल उनसे बात करने का था, लेकिन वो घबरा रही थी. पास खड़े मोहम्मद इस्लाम के कहने पर उन्होंने हमसे बातचीत की.
रूबीना बताती हैं, यहां ज़्यादातर महिलाएं और बच्चे रोज़ा रखती हैं. लेकिन शायद हमने किसी दिन इफ़्तार में फल या कुछ अच्छी चीज़ खाई हो.
50 साल की सादिक़न बताती हैं, ‘अब खाना मिले या ना मिले रोज़ा तो रखना ही है.’
अब हमारे आसपास भीड़ बढ़ने लगती है. सबको लगता है कि हम कुछ देने आए हैं. लेकिन इसके विपरित इनसे ही सवाल पर सवाल पूछकर उनकी तकलीफ़ों को शायद बढ़ाने की कोशिश लगे हुए थे.
यहां पास खड़ी कुछ महिलाएं बताती हैं कि इनके मर्द काम पर गए हैं. अब वो कमाकर लाएंगे तो हम खाना बनाएंगे. 
सर पर गोल टोपी रखे 10 साल के आसिफ़ से हम पूछ लेते हैं कि, ईद के कपड़े ले आए? वो कोई जवाब नहीं देता है. एक चारपाई के किनारे पर 5 साल का दानिश खड़ा है. उसके बदन पर सिर्फ़ एक नेकर है, उसे देखकर ऐसा लगता है कि इनके पास तो रोज़ के कपड़े भी नहीं हैं.
हालांकि रमज़ान इनके लिए भी रहमत का महीना है. रुबीना कहती हैं, ‘अल्लाह जिस हाल में रखे हम ख़ुश हैं. रमज़ान और दिनों से अच्छा ही होता है.’ और हां, एक बात और यहां किसी ने भी महीनो से गोश्त नहीं खाया है.

बताते चलें कि यहां रहने वाले सभी लोगों के पास वोटर आईडी है और सभी लोग वोट भी देते हैं. बावजूद इसके इन्हें कोई भी सरकारी सुविधा हासिल नहीं है. मोदी के ‘स्वच्छ भारत’ और ‘उज्जवला स्कीम’ से भी ये लोग अनजान हैं. शौच के लिए खुले में ही जाना पड़ता है, जिस पर  खेत मालिक ऐतराज करते हैं. आबरू लूटने का ख़तरा अलग होता है.

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